मुख्यमंत्री विष्णु देव साय जी! यह तो आदिवासियों को धोखा ही हुआ! है हिम्मत कुछ करिए।

वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी जी की फेसबुक वाल से उनका लेख साभार
जनजाति सलाहकार परिषद का झुनझुना
(1) संविधान की अनुसूची 5 के अनुसार आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जनजातीय सलाहकार परिषद स्थापित है। उसमें जहां तक मुमकिन हो तीन चौथाई सदस्य उसी राज्य के अनुसूचित जनजाति के विधायक शामिल होंगे। राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और उन्नति से संबंधित ऐसे विषयों पर सलाह देने का कर्तव्य होगा जो उस राज्यपाल द्वारा भेजे जाएं। लोचा यहीं पर है। यदि अनुसूचित जनजातियों के विधायक ऐसे विषयों से वाकिफ और सक्रिय नहीं हों, तो उनके परिषद में रखे जाने का अर्थ ही क्या है?

(2) अजीबोगरीब तिलिस्म है। यदि परिषद कोई राय दे भी देगी, तो मानना या नहीं मानना राज्यपाल के विवेक पर होगा। यदि सब कुछ मनोनीत राज्यपाल, केन्द्र तथा राज्य सरकारों को ही करना है, तो संविधान में पांचवीं अनुसूची की क्या जरूरत है? यह इतिहास का विपर्यय है कि संविधान सभा में बड़े कद्दावर बौद्धिक नेता आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में नहीं रहे हैं। आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी क्षमता का पूरा दोहन करते कई महत्वपूर्ण बुनियादी सवाल उत्तेजित किए थे। संविधान सभा मौजूदा संसद और विधानसभाओं की तरह बहुमत की हुंकार के जरिए हंकाली जाती रही।
(3) अंगरेजी भाषा में राज्यपाल पर प्रतिबंध है कि विनियम बनाने के पहले आदिम जाति जनजाति सलाहकार परिषद से कंसल्ट अर्थात परामर्श करेगा। ‘परामर्श‘ शब्द का प्रयोग विनियम बनाने के लिए होगा और वह भी बहुत सीमित विषयों को लेकर। कई विषय आज उठ खड़े हुए हैं। उनका कोई हवाला संविधान में नहीं है।
(4) संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में प्रावधान है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से परामर्श करेंगे। विवाद होने पर लेकिन नौ सदस्यीय बेंच में सुप्रीम कोर्ट ने तय किया कि ‘परामर्श‘ शब्द का अर्थ तकनीकी, सीमित या शब्दकोषीय नहीं हो सकता। राष्ट्रपति चीफ जस्टिस की सलाह माने बिना नियुक्ति नहीं कर सकते, भले ही संविधान में फकत ‘परामर्श‘ शब्द लिखा हो। कोर्ट का तर्क था कि परामर्श का अर्थ उस व्यक्ति की राय से है जो उन मकसदों के लिए सबसे अच्छी जानकारी, अनुभव, हैसियत, विवेक और परिणामकारी समझ रखता हो।
(5) ठीक यही बात आदिमजातीय मंत्रणा परिषद के लिए क्यों लागू नहीं की जा सकती? कंसल्ट शब्द को कान्करेंस के अर्थ में समझा जाए तो जनजाति सलाहकार परिषद से सलाह करना याने उसकी सहमति के अर्थ में समझना जयपाल सिंह के सुझाव के अनुरूप हो जाता है। जनजाति सलाहकार परिषद भी संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत गठित एक संस्था है, जिसका कार्यक्षेत्र और अधिकार ही राज्यपाल के विवेक के तहत है। आज संकुल स्थितियों में आदिवासियों को उन पर लादे गए उलझते प्रश्नों से रोजमर्रा की जिंदगी में जूझना पड़ रहा है। इसकी जानकारी उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों को ही सबसे ज्यादा होने की उम्मीद करनी चाहिए। इन जिम्मेदारियों को केवल मनोनीत राज्यपाल या केन्द्र और राज्य शासन के विवेक और परामर्श के हुक्मनामे से लागू नहीं किया जा सकता।
(6) जयपाल सिंह ने कहा था ‘‘अनुसूचित जनजातियों को जो भी लाभ हम पहुंचाना चाहते हैं, वह केवल उन्हीं तक सीमित नहीं रहना चाहिए जो अनुसूचित क्षेत्रों में रहते हैं, बल्कि सभी अनुसूचित जनजाति के लोगों को मिलना चाहिए जो कि राज्य में रह रहे हैं। ‘‘प्रस्तावित पांचवीं अनुसूची के पैरा 5 के उप पैरा (5) में, ‘consulted’ शब्द की जगह ‘been so advised’ शब्द रखे जाएं।‘‘ मेरा उद्देश्य है कि जनजाति सलाहकार परिषद् दरअसल प्रभावशाली एजेंसी होकर कुछ कह सकने की वास्तविक शक्ति उसके हाथ में रहे।‘‘
(7) संविधान सभा में जयपाल सिंह की आपत्तियों को नजरअंदाज किया गया। वह संविधान सभा की कार्यवाही पर प्रश्नचिन्ह है। यह आचरण आदिवासियों के हितों की किस तरह तयशुदा अनदेखी कर गया उसका ब्यौरा अब ढूंढ़ना मुश्किल है। संविधान में मुख्य धारा में आदिवासियों को लाने का आशय कुछ सदस्यों की राय में जिनमें सरदार पटेल और गोविन्दवल्लभ पंत भी शामिल थे एक तरह से आदिवासियों के हिन्दूकरण करने या उन्हें उनकी कला और संस्कृति के इतिहास से अलग समझकर हिन्दू धर्म की इकाई के रूप में संविधान की परिभाषा में दर्ज करने की बौद्धिक जिद की तरह रेखांकित किया जा सकता है।
(8) जनजाति सलाहकार परिषद को लेकर भी जयपाल सिंह के परिषद को राज्यपाल या राज्य शासन के रबर स्टाम्प की तरह बनाने का विरोध कर रहे थे। संवैधानिक अजूबा है कि यदि सब कुछ राज्यपाल और राज्य शासन को केन्द्र सरकार के निर्देशों के तहत आदिवासी जीवन के भविष्य के लिए तय करना है, तो फिर आदिवासियों को जनजाति सलाहकार परिषद का झुनझुना देने की क्या जरूरत थी। करोड़ों आदिवासी हजारों वर्षों से कथित मुख्यधारा के नागरिक जीवन से कटकर वन क्षेत्रों में अपनी संस्कृति, परम्परा, स्थानिकता, सामूहिकता और पारस्परिकता के साथ जीवनयापन करते रहे हैं। संविधान और प्रशासन के अमल में लेना मनुष्यप्रेरित परिघटना है। सदियों से चली आ रही आदिवासी जीवन पद्धति की उपेक्षा करते उसमें हस्तक्षेप करने का स्वयमेव अधिकार ले लेना संविधान के मकसदों से मेल नहीं खाता। आदिवासियों की इस आपत्ति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उनके अधिकारों की रक्षा करने वाला संवैधानिक प्रावधान निश्चित किए बिना मूल अधिकारों में देश के हर नागरिक को आदिवासी इलाकों में भी रोजगार करने, जाने या बस जाने का अधिकार तय कर दिया जाएगा तो आदिवासी क्षेत्रीय संवैधानिकता तथा पारंपरिक स्वायत्तता कैसे रह पाएगी। संविधान में इसकी अनदेखी है।