छत्तीसगढ़

कितने ‘मुकेश चंद्राकर’ और मारोगे?

राकेश प्रताप सिंह परिहार (कार्यकारी अध्यक्ष, अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति)

पत्रकारिता, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। सच को उजागर करने और जनता की आवाज बनने वाले पत्रकारों को एक के बाद एक बेरहमी से खत्म किया जा रहा है। बीजापुर के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में अपने साहस से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या इस बात की बानगी है कि सच बोलने की कीमत आज कितनी भयावह हो गई है।

मुकेश चंद्राकर ने ठेकेदार सुरेश चंद्राकर के 120 करोड़ के भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया। इसके कुछ ही दिन बाद उन्हें न केवल मारा गया, बल्कि उनकी लाश को सैप्टिक टैंक में प्लास्टर कर छिपा दिया गया। यह सिर्फ हत्या नहीं, बल्कि यह संदेश था कि जो भी सच के खिलाफ खड़ा होगा, उसका यही अंजाम होगा।

पत्रकारों पर बढ़ते हमले: एक कड़वी सच्चाई
मुकेश चंद्राकर की हत्या कोई अलग घटना नहीं है। 2004 से 2024 के बीच 80 से अधिक पत्रकारों की हत्या हुई है। जो इस बात का संकेत है कि पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल दिनोंदिन गंभीर होता जा रहा है। हर हत्या में भ्रष्टाचारियों, विधायिका और प्रशासनिक तंत्र का गठजोड़ सामने आता है।

पत्रकारों को माफिया, भू-माफिया, खनिज माफिया और राजनीतिक माफिया से लेकर भ्रष्ट अधिकारियों तक से आए दिन धमकियां मिलती हैं। खबर दिखाने पर उन्हें मार दिया जाता है, जेलों में डाल दिया जाता है, या ब्लैकमेलिंग के झूठे मामलों में फंसा दिया जाता है।

क्या न्याय की कोई उम्मीद है?
मुकेश चंद्राकर की हत्या पर समाज और पत्रकार समुदाय आक्रोशित है, लेकिन यह आक्रोश कब तक रहेगा? हर हत्या के बाद हमारा तंत्र “न्याय” की बात करता है, मगर वास्तविकता में न्याय कहीं नजर नहीं आता। हमारे सिस्टम की निर्लज्जता यह है कि हर घटना के बाद घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं, पर ठोस कार्रवाई नहीं होती।

पत्रकार सुरक्षा कानून: अब और देरी नहीं
आज जरूरत है कि पत्रकारों की स्वतंत्रता और उनकी सुरक्षा के लिए एक सशक्त और प्रभावी पत्रकार सुरक्षा कानून लागू किया जाए। यह कानून सिर्फ कागजों पर नहीं, बल्कि वास्तविकता में ऐसा होना चाहिए, जो पत्रकारों को निर्भीक होकर काम करने का अधिकार दे। उन्हें यह भरोसा हो कि सच बोलने पर उनकी जान नहीं जाएगी।

सवाल जो पूछे जाने चाहिए
क्या हमारे देश में सच बोलने की इतनी बेरहम सजा दी जाएगी?
क्या सिस्टम में बैठे भ्रष्ट अधिकारी और नेता अपराधियों को यूं ही संरक्षण देते रहेंगे?
क्या पत्रकारिता का पेशा महज “शिकार” बनकर रह जाएगा?
और सबसे महत्वपूर्ण, क्या अब भी समाज और सरकारें चुप बैठी रहेंगी?

कलम की ताकत का समर्थन करें
लोकतंत्र तभी मजबूत रहेगा, जब सच की आवाज दबेगी नहीं। मुकेश चंद्राकर और उनके जैसे कई साहसी पत्रकारों की मौत को सिर्फ आंकड़ों में तब्दील नहीं होने देना चाहिए। यह हर जागरूक नागरिक और सरकार की जिम्मेदारी है कि वे पत्रकारिता की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए कदम उठाएं।

पत्रकारिता पर हमला केवल पत्रकार पर नहीं, बल्कि पूरे समाज पर हमला है। अगर अब भी हम चुप रहे, तो कल कोई और मुकेश चंद्राकर मारा जाएगा, और यह चुप्पी हमें लोकतंत्र के पतन की ओर ले जाएगी।

 

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