
विवेकानंद में नवपद ओलीजी के छठवें दिन हुई सम्यक दर्शन पद की आराधना
रायपुर (ग्रामयात्रा छत्तीसगढ़ )। विवेकानंद नगर स्थित श्री ज्ञानवल्लभ उपाश्रय में जारी चातुर्मासिक प्रवचनमाला में उपाध्याय प्रवर युवा मनीषी श्री मनीष सागरजी महाराज ने कहा कि ईर्ष्या आत्मा की शत्रु है। ईर्ष्या शरीर को गलाकर आत्मा के भीतर विकार पैदा करती है। डिप्रेशन का मुख्य कारण ईर्ष्या है। ईर्ष्या ही आत्मा को कमजोर कर देती है। ईर्ष्या से मनोबल कमजोर होता है। मान कषाय अधिक होने के ईर्ष्या की बीमारी आती है। डिप्रेशन से मुक्त होने ईर्ष्या का त्याग करना होगा।
उपाध्याय भगवंत ने कहा कि दूसरों के दोष देखना और दूसरों पर आरोप लगाना बड़ा आसान है। इससे अपना विकास और सुधार नहीं हो सकता। अपना विकास तभी होगा जब हम आत्मकेंद्रित रहेंगे। रोटी, कपड़ा और मकान के बाद चौथी आवश्यकता ज्ञान है। जैन संस्कृति कहती है रोज स्वाध्याय करना चाहिए।
वास्तव में अध्ययन करके स्वयं को लाभान्वित करना है। पहले खुद में दृष्टि होना चाहिए। खुद की दोष निकालने की भावना होनी चाहिए। गुणों को ग्रहण कर ही स्वाध्याय की पूर्णता होगी।
उपाध्याय भगवंत ने कहा कि स्वाध्याय और सत्संग के माध्यम से हम सत्य को जानने और जीने का प्रयत्न करते हैं। सच्चाई को जानना और स्वीकार करना ही हमारा मूल लक्ष्य है। नवपदों की आराधना का मुख्य लक्ष्य सिद्ध पद की प्राप्ति करना है।
बस हमारा विजन सही रहना चाहिए। हमारा दर्शन,चारित्र्य, ज्ञान और तप ये चार गुण विपरीत होगा तो हम आत्म कल्याण नहीं कर पाएंगे। इसी कारण से आत्मा का भ्रमण संसार में चलते रहता है। इन गुणों को ठीक करना है। तभी हम आत्म कल्याण की ओर आगे बढ़ पाएंगे।
उपाध्याय भगवंत ने कहा कि यदि व्यक्ति के पुरुषार्थ की दिशा सही है तो फल भी सही मिलता है। व्यक्ति कम पुरुषार्थ में भी आगे बढ़ सकता है। बहुत अधिक पुरुषार्थ भी फल नहीं देता है। पुरुषार्थ की दिशा ठीक होगी तो कम मेहनत से भी अधिक फल मिल जाएगा। यही सम्यक दर्शन है। हमें हमारी दिशा को बदलना है। यदि गलत दिशा में जा रहे हैं तो मंजिल तक पहुंच नहीं पाएंगे। सही दृष्टिकोण और सही विजन ही सम्यक दर्शन है।
