संपादकीय कान्हा तिवारी : क्या अब वक्त आ गया है कि स्वास्थ्य को राजनीति से अलग किया जाए?

संपादकीय कान्हा तिवारी : क्या अब वक्त आ गया है कि स्वास्थ्य को राजनीति से अलग किया जाए?
रायपुर / स्वास्थ्य का विषय महज एक प्रशासनिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि यह मानवीय संवेदना, सामाजिक उत्तरदायित्व और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है। किसी भी देश की प्रगति उसके नागरिकों की मानसिक और शारीरिक स्थिति पर निर्भर करती है। फिर भी, दुर्भाग्यवश भारत में और विशेष रूप से राज्यों में, स्वास्थ्य व्यवस्था एक “पॉलिटिकल डिपार्टमेंट” बनकर रह गई है — जहाँ पद, पैसे और प्रभाव का खेल, सेवा और संवेदना को बुरी तरह पछाड़ चुका है।
छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य विभाग में पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह की गतिविधियां देखने को मिल रही हैं — जैसे टेंडर प्रक्रिया में अनियमितता, उपकरणों और दवाओं की आपूर्ति में भ्रष्टाचार, और उच्च पदस्थ नेताओं व अफसरों के गठजोड़ की आशंका — वे हमारे तंत्र की सड़न की ओर इशारा करती हैं। एक ऐसा विभाग, जो लोगों की जान बचाने के लिए होता है, जब घोटालों का अड्डा बन जाए, तो सवाल उठता है — क्या अब भी हम सिर्फ तमाशा देखते रहेंगे?
दवाओं की कालाबाज़ारी, अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव, झोलाछाप डॉक्टरों का बढ़ता प्रभाव, और ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की लगभग न के बराबर मौजूदगी — ये सब सिर्फ सरकारी आंकड़ों में नहीं, ज़मीनी हकीकत में भी स्पष्ट दिखती हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि विभागीय नीतियां उन विशेषज्ञों द्वारा नहीं बनाई जातीं, जो इस क्षेत्र को समझते हैं, बल्कि वे अफसर और मंत्री तय करते हैं जिन्हें न तो चिकित्सा का अनुभव है और न ही ज़मीनी समस्याओं की कोई सीधी समझ।
यह समझने का समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवाएं राजनीति की मोहताज नहीं होनी चाहिए। जब किसी विभाग में फ़ैसले राजनीतिक लाभ, चुनावी चंदे या रिश्तेदारी के आधार पर होने लगते हैं, तो वहाँ पारदर्शिता और जवाबदेही की कोई गुंजाइश नहीं बचती। आज ज़रूरत इस बात की है कि स्वास्थ्य विभाग को एक “स्वायत्त सेवा प्राधिकरण” में बदला जाए, जहाँ नीतियां विशेषज्ञों द्वारा तय हों, बजट का उपयोग पारदर्शी तरीके से हो, और संसाधनों का वितरण जमीनी जरूरतों के हिसाब से किया जाए, न कि वोट बैंक के लिहाज़ से।
सिंगापुर, स्वीडन और यहां तक कि भारत के केरल राज्य में भी स्वास्थ्य को प्रशासनिक प्राथमिकता की बजाय मानवाधिकार के रूप में देखा गया है। वहां राजनीतिक दखल को कम कर, विशेषज्ञों की सलाह और जमीनी सूचनाओं के आधार पर स्वास्थ्य ढांचे को खड़ा किया गया। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य, जहाँ जनजातीय आबादी और दूरदराज़ के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाना एक बड़ी चुनौती है, वहाँ तो यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि इस क्षेत्र को “नेताओं की प्रयोगशाला” बनने से रोका जाए।
राजनीतिक नेतृत्व यदि वाकई ईमानदार है तो उसे खुद इस मांग का समर्थन करना चाहिए कि स्वास्थ्य मंत्रालय और उससे जुड़ी एजेंसियाँ विशेषज्ञों के अधीन चलें, और राजनीतिक हस्तक्षेप पूरी तरह समाप्त किया जाए। यही सच्ची सेवा होगी और यही असली राजनीति — जनहित की राजनीति।
आज नहीं, तो कब?
अगर अब भी हम स्वास्थ्य को राजनीति से अलग नहीं करेंगे, तो आने वाले समय में हम केवल बीमार लोगों की संख्या नहीं गिनेंगे, बल्कि अपनी संवेदनहीनता का शोक भी मनाएंगे। हर असमय मौत के साथ यह सवाल उठेगा कि क्या यह जान बचाई जा सकती थी, अगर व्यवस्था में इंसान पहले होता और मुनाफा या सत्ता बाद में?
स्वस्थ लोकतंत्र की नींव स्वस्थ नागरिकों से ही रखी जा सकती है। और स्वस्थ नागरिक तभी बनेंगे, जब स्वास्थ्य सेवा एक सेवा ही बनी रहे — सौदे नहीं।