कोरबा (सेंट्रल छत्तीसगढ़) – लोकपर्व छेरछेरा आज पूरे छत्तीसगढ़ में हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। गांव से लेकर शहर तक दिनभर ‘छेरछेरा..माई कोठी के धान ल हेर हेरा’ की आवाज गूंजती रही।

छेरछेरा लोक त्यौहार पौष पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। पौष पूर्णिमा से लगभग 15 दिन पहले से ग्रामीण टोली बनाते है, जो लकड़ी के डंडे लेकर मांदर झांझ मंजीरे और अन्य पारम्परिक वाद्य यंत्रो के साथ पारम्परिक लोक गीतों की धुन में घर घर जाकर नृत्य करते है। बच्चो के साथ साथ लगभग हर वर्ग के पुरुष इस दौरान घर घर जाते है और नृत्य करते है, जिसके बदले में उनको अन्न दिया जाता है।डंडा नृत्य की वैसे तो कोई विशेष वेशभूषा नहीं होती, लेकिन आदिवासी बाहुल्य वाले क्षेत्रो में आदिवासी विशेष वेशभूषा धारण करते है। छेरछेरा त्यौहार को नए फसल कटने की ख़ुशी में मनाया जाने त्यौहार भी कहा जाता है…क्योंकि किसान धान की कटाई और मिसाई पूरा कर लेते है, और लगभग 2 महीने फसल को घर तक लाने जो जी तोड़ मेहनत करते हैं, उसके बाद फसल को समेत लेने की ख़ुशी में भी इस त्यौहार को मनाने की बात भी कही जाती है सही भी है….पौष पूर्णिमा के दिन बच्चे, जवान सभी घर घर जाकर ‘छेर छेरा ! माई कोठी के धान ला हेर हेरा !’ कहकर चिल्लाते है और दान क रूप में लोग उन्हें धान देते हैं।

छेरछेरा की लोककथा

वैसे तो छेरछेरा को लेकर कुछ प्राचीन लोक कथाएं भी प्रचलित है – एक समय की बात है जब कोशलाधिपति कल्याण साय जी दिल्ली के महाराज के राज्य में राजपाठ, युद्ध विद्या की शिक्षा ग्रहण करने के लिए 8 वर्षो तक रहे, 8 वर्ष बाद जब शिक्षा समाप्त हो गई हो, वे सरयू नदी के किनारे किनारे होते हुए ब्राम्हणो के साथ छत्तीसगढ़ के प्राचीन राजधानी रतनपुर वापस पहुंचे। जिसकी जानकारी जब 36 गढ़ के प्रजा को हुई, तो उनके स्वागत के लिए सभी रतनपुर पहुंचने लगे, और राजा के वापस लौटने की ख़ुशी में नाचने गाने लगे। जब राजा महल पहुंचे तो रानी ने उनका स्वागत किया और महल के छत के ऊपर से अपनी प्रजा को दान के रूप में अन्न, धन और सोने चांदी बांटी। जिसके बाद प्रजा में ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए राज महल का खजाना और अन्नागार सदा भरे रहने का आशीर्वाद दिया। जिसके बाद राजा कल्याण से ने पौष पूर्णिमा के दिन छेरछेरा त्यौहार हमेशा मनाने का फरमान जारी किया। तब से लेकर आज तक पौष पूर्णिमा के दिन छत्तीसगढ़ के लोग छेरछेरा त्यौहार मनाते है….

छेरछेरा के कुछ पारम्परिक दोहे

‘चाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुड़ी गुड़ीधनी मोर पुन्‍नी म, फरा नाचे डुआ डुआतीर तीर मोटियारी, माझा म डुरी डुरीचाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुड़ी गुड़ी!’

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